
ट्रांसजेंडर
होने के कारण कई बार मनाबी के सामने इतनी विकट चुनौतियां आई कि आत्महत्या तक की बात दिमाग में छाने
लगती, मगर वह हिम्मत के साथ डटती, चुनौती
का सामना करती और उसके बाद फिर एक नई चुनौती सामने खड़ी मिलती। 35 सालों तक यही
चलता रहा। मंजिल का पता नही था, संघर्ष चरम पर था। लगभग 35
सालों के बाद अब मनाबी को
पश्चिम बंगाल के कृष्णा महिला कॉलेज का प्रिंसिपल बनाया गया तो उन्हें लगा कि अब
जाकर उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थान मिला। अपने संघर्ष की दास्तां शेयर कर
रही है मनाबी-
शरीर
पुरुष का था, इसमें
मेरी क्या गलती
मेरा
जन्म पश्चिम बंगाल के नैहाटी कस्बे में 25 सिंतबर 1964 को पुत्र के रुप में हुआ था, लेकिन जैसे-जैसे में 5-6 साल की
हुई तो मुझे लड़कियों के कपड़े पहनना अच्छा लगने लगा। मेरा नाम भी सोमनाथ था।
स्कूल में भी मैं लड़कियों के खेल खेलना पसंद करती थी। घर में मेरे अलावा दो बहनें
ओर थी। मुझे बहनों के कपड़े पहनने का मन होता, मगर मां डांट
देती, फिर भी मैं छिपकर उनके कपड़े पहन लेती, कपड़े पहनकर मेरी आत्मा तृप्त-सी हो जाती। मैं खुद को पूर्ण महसूस करती
थी। मगर परिवार वालों को यह रास नही आता। कई बार पिताजी ने मेरी पिटाई भी की। मुझे
हमेशा लगता कि मैं लड़का नही लड़की हूं और लड़का होने का बोझ ढ़ो रही हूँ। कई बार
तो इतना परेशान हो जाती कि मन करता इन सबको छोड़कर कही दूर भाग जाऊं।
स्कूल
में बच्चें बनाते थे मजाक
जब
मैं स्कूल में पढ़ती थी तो कोई मुझसे दोस्ती नही करता था, किसी दिन यदि मैं स्कूल नही
जाती तो कोई मुझे बीते दिन की पढ़ाई के बारे में नही बताता था। यही से मुझे एक
सकारात्मक ऊर्जा भी मिली और मैंने आश्रित होना छोड़ दिया, दूसरे
बच्चों से पूछना छोड़ दिया। यदि स्कूल नही भी जाती तो भी खुद ही पढ़ाई करती,
इसका परिणाम यह हुआ कि मैं कक्षा में अव्वल आने लगी। ग्रेजुएशन में
दाखिला लेने पर भी मेरा मजाक बनाया गया। एक बार तो मुझे मेरे सहपाठियो द्वारा कमरे
में बंद तक कर दिया गया। अब तक भी मैं घुंट-घुंट कर जी रही थी क्योंकि पोशाक मुझे
लड़कों की पहननी होती थी जोकि मुझे बिल्कुल भी पंसद नही था। मेरी व्यवहार शैली
देखकर छात्र मेरा मजाक बनाते। लेकिन मुझमें तबतक सहनशक्ति विकसित हो चुकी थी और
मैं हर तिरस्कार को अपना मुकद्दर समझकर भूल जाती। मैंने जाधवपुर विश्वविद्यालय से
एमए में टॉप किया था। उसके बाद 2006 में थर्ड जेंडर पर पीएचडी की।
2003
में ऑपरेशन के बाद पूरी हुई मुराद
1995
में कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया था। तभी मैंने अपना सेक्स चेंज कराने की ठान ली
थी क्योंकि जो अपमान मैं इतने समय से ढ़ो रही थी, मुझे लगता था कि सेक्स चेंज कराने के बाद मुझे
इससे छुटकारा मिल जाएगा। इसी दौरान मैंने अकेलापन दूर करने के लिए ट्रांसजेंडरों के
लिए पहली मैगजीन 'ओब-मानब' निकाली थी जिसका हिन्दी मतलब था- उप मानव। सेक्स
चेंज कराने के लिए ऑपरेशन में 5-6 लाख रुपये लगते थे। जोकि मैंने 2003 तक इकट्ठे
कर लिए और उसके बाद अपना ऑपरेशन कराया। ऑपरेशन के बाद लगा कि मेरा वजूद पूरा हो
गया हैं। मगर सामाजिक तौर पर मुझे तब भी नही स्वीकारा गया। जेंडर चेंज करवाने के
बाद उन्हेंन मारा-पीटा गया, रेप तक करने की कोशिश की गई, उनके अपार्टमेंट को आग तक लगा
दी गई, लेकिन मैंने हार नही मानी और अपना नाम सोमनाथ से मनाबी (मनाबी का
अर्थ है मानवता) रख दिया।
ट्रांसजेंडरों
को नही करने देते स्ट्रग्ल

शादी
की मगर नही हुई सफल
मैने
शादी की तो लगा कि अब सब कुछ ठीक हो रहा है मगर भगवान को कुछ ओर ही मंजूर था। मेरे
पति ने शादी के कुछ दिनों बाद ही कहा कि मैं लड़की नही लड़का हूं और मैं तुम्हारे
साथ नही रह सकता। इतना ही नहीं, मुझ पर मानहानि का दावा कर मेरे खिलाफ केस भी डाल दिया।
अकेलापन
दूर करने के लिए देवाशीष को किया एडाप्ट
अकेलापन
इंसान को खा जाता है, घर भी
सूना-सूना रहता था, 2011 में मैंने अपने एक स्टूडेंट देवाशीष
को बेटे के रुप में एडाप्ट कर लिया। देवाशीष मुझे मां कहता है तो मेरी आत्मा को
बहुत सुकून मिलता है। देवाशीष के बाद मैंने कई ट्रांसजेंडरों को
अपने घर में पनाह दी और उनकी मदद की। वर्तमान में मेरे घर में 4 ओर ट्रांसजेंडर
रहते हैं।
खुद
की मेहनत से पाया है प्रिंसिपल का पद
मैंने
पिताजी शुतरन्जन बंदोपाध्याय 90 साल के हो चुके हैं। मां रेखा बंदोपाध्याय पहले ही
गुजर चुकी है। पिता जी नैहाटी में रहते है और उन्हें मेरी जरूरत है। सालों बाद
उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया है। नैहाटी कस्बे के पास के ही एक कॉलेज में
प्रिंसिपल की वैकंसी निकली हुई थी। मैंने पिता के पास रहने की इच्छा से वहां
अप्लाई किया। मैंने रिजर्वेशन नही लिया था, मैंने जनरल कैटेगरी में अप्लाई किया था। आज कुछ
लोग कहते हैं कि मुझे ऐसी ही प्रिंसिपल के पद पर बैठा दिया गया है। लेकिन सच यह है
कि प्रिंसिपल बनने के लिए एसोसिएट प्रोफेसर होना, 14 साल का
एक्सपीरियंस और पीएचडी डिग्री होना अनिवार्य है। मेरे पास यह तीनों थी, इसलिए मैंने अप्लाई किया और यह पद पाया।
रविन्द्रनाथ
टैगोर के जीवन से बहुत कुछ सीखा है
मैंने
तो तन्हाई में जीना सीखा है। तिरस्कार का घूंट पल-पल पिया है। ट्रांसजेंडर को कोई
मदद नही करता। मैंने रविन्द्रनाथ टैगोर के जीवन से बहुत कुछ सीखा है। विवेकानन्द
और रामकृष्णन परमहंस को अपना गुरु मानती हूं। विवेकानन्द को खूब पढ़ती हूँ। संघर्ष
के दिनों में इन महापुरुषों ने ही मुझे जीने की शक्ति दी है।
ट्रांसजेंडरों
को करना चाहती हूं शिक्षित
ट्रांसजेंडर
सामाजिक भेदभाव के कारण पढाई से दूर हो जाते हैं और पूरी जिंदगी नाचकर गाकर ही
अपना गुजरा करते हैं। यदि ट्रांसजेंडरों को भी उचित सुविधा और संसाधन मुहैया कराए
जाए तो ये भी दुनिया में नाम रोशन करने का दम रखते हैँ। मेरा मकसद ट्रांसजेडरों को
शिक्षित करना है, अब इसी
के लिए प्रयास करुंगी।
डॉ.समीर
मल्होत्रा
वरिष्ठ
मनोचिकित्सक, मैक्स
अस्पताल
हर
इंसान की सेक्सुएलिटी एक अहम पहलू है, जैसे समाज के अंदर पुरुष का रोल है, महिला का रोल है, ऐसे ही ट्रांसजेंडर जिस रोल को
एडप्ट करना चाहता है, करता है, इससे
उन्हें मानसिक सुख मिलता है। इसके लिए कई बार हॉर्मोनल, जेनेटिक
कारण होते है तो कई बार इवायरमेंट कारण भी जिम्मेदार होते हैं। जैसा वातावरण और
माहौल बचपन में मिलता है, जैसे घर के हालात होते है वैसे ही
माहौल में रहकर ट्रांसजेंडर भी अपना माहौल खुद क्रिएट करता है। ऐसा करना गलत भी
नही हैं, लेकिन ट्रांसजेंडर बनने के बाद उन्हें अपनी क्षमता
के अनुसार आगे बढ़ना चाहिए।
देवाशीष
एडाप्टिड
चाइल्ड, मनाबी बंदोपाध्याय

बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंमानबी का स्ट्रगल तो अपनक जगह है ही लेकिन देवाशीष की कही बात समाज को आइना दिखाता है। पिता या माँ दोनों का रोल निभाते हैं तो मातृत्व के क्षेत्र में मानबी के साथ अमानवीय व्यवहार क्यों?
बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंमानबी का स्ट्रगल तो अपनक जगह है ही लेकिन देवाशीष की कही बात समाज को आइना दिखाता है। पिता या माँ दोनों का रोल निभाते हैं तो मातृत्व के क्षेत्र में मानबी के साथ अमानवीय व्यवहार क्यों?