शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

तेजाब पीड़िता रेशमा के जज्बे को सलाम (inspirational story of RESHMA QURESHI)

यूपी के इलाहाबाद में तेजाब हमले की शिकार हुई रेशमा कुरैशी ने साहस और जज्बे की नई इबारत लिखी है। अक्सर देखने में आता है कि तेजाब पीड़िता जिंदगीभर तेजाब के कंलक को अपने साथ ढ़ोहती रहती है। खुद को अपकृत मानकर तेजाब पीड़िताओं का जीना दूभर हो जाता है। लेकिन इन्ही के बीच रेशमा ने समाज में एक नई मिसाल पेश की है। तेजाब से चेहरा विकृत होने के बावजूद रेशमा कुरैशी ने फैशन की दुनिया में कदम रखने का साहस दिखाया और अपने इस साहस में रेशमा कामयाब भी हुई। गत दिनों रेशमा ने प्रतिष्ठित न्यूयॉर्क फैशन वीक में रैंप पर कैटवॉक कर लोगों का दिल जीता और यह संदेश दिया कि सिर्फ रंग-रूप ही असली खूबसूरती नहीं होती है, इंसान के अंदर यदि दृढ़निश्चय हो तो वह कोई भी लक्ष्य हासिल कर सकता है।

19 साल की रेशमा सफेद रंग के गाउन में रैंप पर उतरीं। वह अर्चना कोचर की डिजाइन की हुई ड्रेस में काफी अच्छी लग रही थीं। उन्हें फैशन उत्पाद कंपनी एफटीएल मोडा की ओर से सालाना फैशन वीक में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। जब वह रैंप पर कैटवॉक करते हुए लोगों के बीच पहुंचीं तब सभी ने तालियां बजाकर उनका हौसला बढ़ाया। तेजाब हमले में जख्मी हुई रेशमा ने जख्म के निशान के साथ 'टेक ब्यूटी बैक' अभियान को प्रचारित करने के लिए रैंप वॉक किया। उनके आत्मविश्वास और हौसले की लोगों ने खूब सराहना की। रैंपवाक के बाद रेशमा कुरैशी ने मीडिया से बातचीत के दौरान बताया कि यह उनके लिए जिंदगी बदलने वाला अनुभव है। इस मुकाम पर पहुंचकर रेशमा बहुत अच्छा महसूस कर रही थी। रेशमा कहती है कि 'मैं दुनिया से यह कहना चाहती हूं कि हम जैसी पीडि़ताओं को कमजोर नहीं समझा जाए। हम इसके बावजूद कुछ करने का साहस दिखा सकते हैं।'

जीजा ने फेंका था तेजाब
इलाहाबाद में 19 मई, 2004 को जब रेशमा अपनी बहन के साथ परीक्षा केंद्र जा रही थीं तब उसके जीजा ने अपने दोस्तों के साथ उस पर तेजाब फेंक दिया था। इसमें उसका चेहरा बुरी तरह झुलस गया था। इस दर्दनाक घटना में उनकी एक आंख की रोशनी चली गई। इस घटना के बाद रेशमा ने अपने हौंसले ओर अधिक बुलंद कर लिए और वह धीरे-धीरे भारत में तेजाब की खुली बिक्री खत्म करने के अभियान का चेहरा बन गई हैं।

पीड़िताओं के लिए बन चुकी है मसीहा
रेशमा कुरैशी भारत में तेजाब पीड़िताओं की आवाज बन चुकी हैं। उन्होंने यूट्यूब पर 'मेक लव नॉट स्केयर्स' नाम से वीडियो जारी किया है। इस वीडियो को रेशमा ने मुंबई स्थित अपने घर में फिल्माया है। इसका मकसद तेजाब हमले की शिकार पीड़िताओं के प्रति जागरुकता लाना और सम्मान के साथ उनको जीने का हक दिलाना है। इतना ही नहीं, रेशमा तेजाब पीड़िताओं को रोजगार दिलाने वाली एनजीओ से भी जुडी है।

सनी लियोन ने भी की तारीफ
न्यूयॉर्क फैशन वीक में तेजाब पीड़िता रेशमा कुरैशी ने अपनी फैशनेबल उपस्थिति से न्यूयॉर्क के रैंप पर आग लगा दी। इस दौरान अभिनेत्री सनी लियोन तेजाब पीडिता के साथ रैप वाक पर भावुक हो गई और उन्हें बाद में कहा, ‘‘जीवन के कुछ क्षण आप कभी नहीं भूल सकते। न्यूयॉर्क फैशन वीक में रैंप पर चलना मेरे लिए ऐसा ही एक क्षण था। मेरे लिए यह गर्व का अवसर था। रेशमा के साथ वाक करना मेरे लिए सम्मान की बात है।‘’

गुरुवार, 15 सितंबर 2016

मुनव्वर राना साहब की जिंदगी के खट्टे-मिठे पल (interview of munawwar rana)


नवजात शिशु की पहली गुरु के साथ-साथ उसकी जीवनदाता होती है मां। मां शब्द को परिभाषित करना लगभग असंभव-सा है क्योंकि मां खुद में ही गागर में सागर जैसी होती है। लेकिन कुछेक लोग ऐसे भी है जिन्होंने मां को परिभाषित करने का प्रयास किया है। बात शायरी और गजल की करें तो शायरों की दुनिया में अकेले मुनव्वर राना ही ऐसे शायर है जिन्होंने अपनी गजल और शायरी से मां को संबोधित किया है और अपने इस प्रयास में सफल भी रहे। आज मुनव्वर एक जाने माने शायर है और विदेशों तक में मुशायरों में शरीक होने पहुंचते हैँ। मुनव्वर साहब ने हमारे साथ साझा किए जिंदगी के कुछ खट्टे मिठे पल-

गजल और शायरी में मां क्यों?

लगभग 40 साल पहले मां पर कहना शुरू किया था। उस जमाने में उर्दू गजल का मतलब होता था महबूब से बातें करना (शब्दकोशों में भी गजल का एक मतलब महबूब से बात करना होता है)। उर्दू गजल में महबूब की आंख, कान, बाल, कमर, खूबसूरती आदि की ही बातें होती थी। खुले गोश्त की दुकान जैसी हो गई थी उर्दू गजलें। तभी दिमाग में आया कि यदि एक मामूली शक्ल वाली औरत हमारी महबूबा हो सकती है तो हमारी मां हमारी महबूब क्यों नही हो सकती? मां हमारी प्रेमिका क्यों नही हो सकती? हम अपनी मां को इतना प्रेम क्यों नही कर सकते? जब तुलसीदास के महबूब भगवान राम हो सकते हैं तो मेरी महबूबा मेरी मां भी हो सकती है। उन दिनों दिमाग में बस यही सब चलता था और ऐसी ही मैंने मां पर शेर कहने शुरू किए। आलोचकों के निशाने पर भी खूब रहा। लेकिन मैं अपने रास्ते चलता रहा। कहा भी है-

चलती फिरती आँखों से अज़ाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखि है

जो कुछ भी हूं मां की बदौलत हूं

शायरी के कंसेप्ट की बात हो या फिर किसी नए विचार की। मां ही थी जिससे मुझे यह सब मिला और मैं लिखते-लिखते यहां तक पहुंचा। मेरे शेरों में मां का बहुत बड़ा योगदान है।

मां का कर्ज उतारे नही उतर सका
जिस तरह एक मां अपने बच्चों को पालती है, परेशानी में रहते हुए भी अपने बच्चों पर आंच नही आने देती। बच्चों को अच्छी तालीम, संस्कार भी मां से ही मिलते हैँ। ऐसा जज्बा और किस रिश्ते में मिल सकता है? बच्चा बड़ा भी हो जाए तो भी मां उसके साथ साए की तरह रहना चाहती है। कभी उससे नाराज नही होती। इस पर मैंने एक शेर भी कहा था-

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

नसीबवाले है वो जिनके साथ मां रहती है
कल्चर बदल रहा है, शहरों में घर छोटे होते है, एकांकी परिवार हो रहे हैं, उस मां को जिसने जन्म दिया, को भी लोग गांव भेज देते हैं और भूल जाते हैं मां का कर्ज जोकि उतारे नही उतर सकता। मैं नसीबवाला हूं कि मां मेरी साथ रहती है।जिनके साथ मां रहती है समझों उनके साथ भगवान रहता है। मां ऐसी होती है कि उसका बच्चा कुछ भी गलत करें तो भी नाराज नही होती।

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

जब अम्मा ने समझाया था
वालिद साहब ने हमारा बीकाम में एडमिशन करा दिया। मगर बदमाशी करने के कारण क्लास में बहुत कम जाते थे। घर वालों को भी पता चल गया था। हमारे वालिद चाहते थे कि हम उनके ट्रासपोर्ट के काम में हाथ बटाए। उनका कानपुर में ट्रांसपोर्ट का छोटा सा कारोबार था। ट्रांसपोर्ट का काम बड़ा रफ-टफ होता है। हमारा उसमें मन नही लगता था। तो हमने भी कह दिया कि हमसे ट्रांसपोर्ट का काम नही हो सकता, आप चाहे तो हमें घर से निकाल दें। तब अम्मा ने समझाया था कि जंजाल अच्छा है संजाल अच्छा नही है। काम में हाथ नही बटाओगे तो खर्चे कहां से निकलेंगे। अब्बा-अम्मा तो पुराने पेड़ों की छाया की तरह होते हैं, इनका ख्याल भी तो तुम्हें ही रखना है। छोटे-भाई बहनों का ख्याल भी रखना है। अम्मा की बात दिमाग में आई और आखिरकार थक-हारकर ट्रांसपोर्ट के काम में हाथ बटाने लगे।

बच्चा कभी मां की नजरों में बुढ़ा नही होता
हमने अपनी पांचों बेटियों और एक बेटी की शादी कर दी। एक दिन ख्याल आया कि इंशा-अल्ला हमने अपने फर्ज अदा कर लिए है। किसी से कभी मांगना नही पड़ा, सबकुछ ठीकठाक हो गया। जिंदगी को भी अच्छे से बिताया। ये मां की दुआएं ही थी कि हमने अपनी जिंदगी इतनी शानदार तरीके से गुजारी। एक दिन मैंने मां को कहा कि मां अब मैं बूढ़ा हो रहा हूं तो मेरे रूकने से पहले ही मां ने जवाब दिया कि जिसकी मां जिंदा हो उसका बेटा बूढ़ा नही होता। बाद में मैंने एक शेर भी कहा था-

अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

मुनव्वर राना फिलहाल बिमार है। बोला नही जा रहा था, लेकिन जैसे-जैसे बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो मानों उन्हें अपने दर्द का एहसास भी खत्म सा हो गया। मां आएशा खातून का जहां भी जिक्र आता, वही उनका शुक्रियादा करना नही भूले। कहते हैं मां 82 साल की हो गई है मगर अभी भी सोचता हूं कि बच्चा बनकर मां से लिपट जांऊ। इसी से पता चलता है उनका मां के प्रति प्रेम और लगन। बातचीत के बाद जब उन्हें कहा गया कि आपके जल्द से जल्द स्वस्थ्य होने की प्रार्थना करता हूं तो भी चलते-चलते एक शेर यह कह गए-

अभी जिंदा है मां मेरी मुझे कुछ भी नही होगा
मैं घर से जब निकलता हूं, दुआ भी साथ चलती है

अंतिम संस्कार के लिए भीड़ ने जुटाए 12 हजार रुपये


मानवता को शर्मसार करने वाले खबरों से समाचार संसाधन भरे पढ़े है। इन्हीं संसाधनों पर इंसानियत की जीती जागती मिसालें आजकल कम ही देखने को मिलती है। लेकिन गुजरात के राजकोट में जो कुछ हुआ वह इंसानियत के नाते किसी मिसाल से कम नही है।
गुजरात के राजकोट के दाहोद के मजदुर परिवार के 11 साल के बेटे की किसी कारण वश मौत हो गई। परिवार मजदूर था और आर्थिक तंगी के कारण उनके पास डेड बॉडी ले जाने के पैसे भी नहीं थे। परिवार के लोग करीब 12 घंटे लाश लेकर डिपो में बैठे रहे। पैसे के जुगाड़ की जुग्गत में लगे परिवार को हर ओर निराशा ही मिली। तभी यह बात जब ड्राइवरों और परिवहन कर्मचारियों को पता चली तो उन्होंने चंदा इकट्ठा करना शुरू कर दिया। देखते ही देखते ड्राइवरों ने 12 हजार रुपये का चंदा एकत्रित करके मजदूर परिवार को दे दिया। इसके बाद परिवार को लाश लेकर रवाना किया गया, तब जाकर बालक का अंतिम संस्कार हुआ। बताया जाता है कि कुछ कर्मचारी को बच्चे का अंतिम संस्कार कराने के लिए शमशान घाट तक भी पहुंचें। बस डिपो के कर्मचारियों ने मानवता का उत्तम उदाहरण पेश करके यह दिखा दिया कि आज भी देश में इंसानियत जिंदा है। सलाम इन ड्राइवरों व कर्मचारियों को।

बुधवार, 14 सितंबर 2016

मेट्रिमोनियल साइट्स इस्तेमाल करते समय बरतें सावधानी

कहते है जोडियां ऊपर वाला बनाता है मगर बदलते दौर में मेट्रिमोनियल साइट्स जिंदगी के इस नए रिश्तें की बुनियाद रखने में बहुत हद तक कामयाब हो चुकी है। अब अधिकांश रिश्तें मोट्रिमोनियल साइट्स बना रही है। इससे मेट्रिमोनियल साइट्स का कारोबार भी लगातार बढता जा रहा है साथ ही इन साइट्स के बढ़ते प्रचलन के कारण इनका दुरूपयोग भी बड़े स्तर पर किया जा रहा है। पेश है एक रिपोर्ट:-

एक दशक पहले तक चिर-परिचित के माध्यम से ही शादी के लिए रिश्ते ढ़ूंढे जाते थे। अकसर रिश्ते ढुंढने में खासा वक्त बित जाता था। ऐसे में आपने लोगों को यह भी कहते हुए सुना होगा कि जिसके नसीब में जो होगा और जब होगा, उसे वही मिलेगा। बदलते दौर में जहां हर चीज हाईटेक होती जा रही है, वही शादी के लिए रिश्ते ढूंढना भी अब एक व्यवसाय बन चुका है। जी हां, मेट्रिमोनियल साइट्स से तो आप परिचित होगें ही। इन्ही मेट्रिमोनियल साइट्स पर अब रिश्ते चंद घंटों में मिलने संभव हो गये है।

कैसे काम करती है ये मेट्रीमोनियल साइट्स

मेट्रीमोनियल साइट्स पर सबसे पहले खुद को रजिस्टर्ड करना होता है। रजिस्टर्ड करने के बाद आपको अपने बारें में बेसिक जानकारियां देनी होगी, इससे आपकी आईडी बन जाएगी। आईडी बनते ही आपको आपना एक पासवर्ड भरना होगा। भविष्य में आप इसी आईडी के माध्यम से अपने पार्टनर ढूंढ सकते हैं। पार्टनर ढूंढने के बाद यदि आप उनसे सम्पर्क करना चाहते हैं तो आपको इसके लिए वेबसाइट की सदस्यता लेनी होगी। विभिन्न वेबसाइट्स में अलग अलग सदस्यता शुल्क लिया जाता है। आमतौर पर,मेट्रीमोनियल साइट्स तीन तरह की सदस्यता देते हैँ जिन्हें गोल्डन, डायमंड और प्लेटिनम मेंबरशिप कहां जाता है। इन मेंबरशिप के अलग अलग शुल्क निर्धारित किया गया है। साथ ही इनकी वैधता भी अलग अलग है। जैसे गोल्डन मेंबरशिप में 1500 से 2000 रूपये तक देने होते है,इसकी वैधता तीन माह की होती है साथ ही इसमें आप लगभग 500 लोगों की पर्सनल डिटेल्स जान सकते हैं। डायमंड मेंबरशिप में वैधता 6 माह और प्लेटिनम मेंबरशिप में वैधता एक साल दी जाती है।

रिश्ते ढूंढने के लिए अब ओर भी विकल्प है

1)न्यूजपेपर और मैग्जीन्स-अखबार में भी इश्तेहार देकर आप रिश्तें ढूंढ सकते हैं। अखबार में एक पेज क्लासीफाइडस का दिया जाता है। जिनमें बहुत कम रेट पर आपका विज्ञापन प्रकाशित किया जाता है।

2)मैरिज ब्यूरो-छोटे कस्बों से लेकर बड़े शहरों तक में अब मैरिज ब्यूरों खुल चुके है। यहां सदस्यता शुल्क जमा कराकर आप खुद को रजिस्टर्ड कर सकते हैं। यहां मैरिज ब्यूरो आपके लिए रिश्ते ढूंढेगा। आपको रिश्ता पक्का होने पर कुछ शुल्क भी देना होता है। गरीब कन्याओं का विवाह भी कई मैरिज ब्यूरो अपने खर्चे पर कराते हैं।

कुछ फेमस मेट्रीमोनियल साइट्स

www.jeevansathi.com

www.shaadi.com

www.simplymarry.com

www.bharatmatrimony.com

www.communitymatrimony.com

रिश्ता जोडने से पहले यह बाते जरूर जांच लें

-कोई क्रिमिनल केस तो नही है

-समाज में परिवार की कैसी छवि है

-फैमिली बैंकग्राउंड संबंधी जानकारी जरूर करें

-मेडिकल फिटनेस की भी जांच करें

-परिवार के सभी लोगों के बारे में जानकारी करें

-आय के स्त्रोत की जांच भी आवश्यक है

-अगर हो सकें तो, पढाई संबंधी डिग्रियों की जांच भी करें

-आसपड़ोस में भी परिवार के बारें में पूछताछ कर लें


बढ़ रहें है धोखे भी

मेट्रीमोनियल साइट्स के प्रचलन के साथ साथ यहां धोखे भी बढ़ रहे हैं। कुछ मामलों में सामने आया है कि मेट्रीमोनियल साइट्स पर लोग अपना अतीत को छुपा लेते हैं, जैसे पहले से की गई शादी,तलाक या फिर पहली शादी से हुए बच्चें। शादी के बाद ऐसी बातें पता चलने पर स्थिति ज्यादा विकराल रूप धारण कर लेती है। अक्सर तलाक तक की नौबत आ जाती है। इसलिए जरूरी है कि साइट्स से प्रोफाइल डिटेल्स लेने के बाद आप अपने स्तर से जांच पड़ताल कर लें। ताकि बाद में कोई परेशानी ना हो।

एनआरआई के मामले में बरते सावधानी

एनआरआई दुल्हों के धोखाधड़ी के मामले ज्यादा प्रकाश में आए है। एनआरआई दुल्हें या तो शादी के बाद लड़की को विदेश नही ले जाते या फिर विदेश ले जाकर वापस भारत नही आते। ऐसे में लड़की भी विदेश में कैद होकर रह जाती है। वही भारतीय परिवेश में पली-बड़ी लड़की विदेशी सांस्कृति में खुद को ढ़ालने में असहाय महसूस करती है। इसलिए पहले से ही जांच पड़ताल कर लें कि जहां आप अपनी लड़की का रिश्ते करने जा रहे है क्या वह भारतीय संस्कृति को महत्ता देते है या नही। इसके अलावा भी एनआरआई के साथ कई दिक्कतें आती है। यदि एनआरआई संबंधी कोई शिकायत पुलिस में की जाती है तो मामला विदेश से जुडा होने के कारण पुलिस भी देरी से हाथ डालती है। एनआरआई से रिश्ता जोड़ने से पहले विशेष सावधानियां बरते और पहले से ही सारी जांच पड़ताल कर ले ताकि बाद में कोई समस्या उत्पन्न ना हो। एनआरआई के संबंध में विदेश मंत्रालय में जाकर भी आप तहकीकात कर सकते हैं।

डिटेक्टिव एंजेसियों की भी ले सकते है मदद

आजकल जासूसी करने के लिए डिटेक्टिव एंजेसियां सक्रिय है। यदि आप किसी के बारे में गहनता से जांचना चाहते हैं तो आप इन एजेंसियों की सहायता ले सकते हैं। यहां आपको इस काम के लिए फीस देनी होगी और एक निर्धारित अवधि के बाद आपको संबंधित व्यक्ति का पूरा चिट्ठा मिल जाएगा। दिल्ली स्थित बीएमडी डिटेक्टिव एंजेसी के मालिक पंकज सरोहा बताते है कि उनके पास शादी से पहले कई लोग लड़के या लड़की के बारे में जानकारी लेने के लिए आते हैं। हम उन्हें सभी जानकारियां उपलब्ध करा देते हैं जैसे-पहले कोई शादी हुई है या नही, कोई अपराधिक मामला है या नही, किसी बुरी लत का आदी है या नही आदि के अलावा परिवार की पूरी जानकारी।

एक ट्रांसजेंडर की कहानी, उन्हीं की जुबानी: मनाबी बंदोपाध्याय (manabi bandhopadhyay)


बेशक भारत में कानूनन तौर पर थर्ड जेंडर को मान्यता मिल गई हो मगर भारतीय समाज ने अभी तक भी तीसरे लिंग वर्ग (थर्ड जेंडर) को पूरी तरह स्वीकार नही किया है। आज भी थर्ड जेंडर को समाज में तिरस्कार, हीन भावना और अपमान की नजरों से देखा जाता है। ये कहना है देश की पहली ट्रांसजेंडर प्रिंसिपल बनी मनाबी बंदोपाध्याय का। जिन्होंने विपरीत सामाजिक परिस्थितियों में अपने संघर्ष के बुते यह मुकाम हासिल किया। अपने लगभग 35 साल के संघर्ष से समाज को आइना दिखाते हुए मनाबी आज सभी के लिए एक मिशाल है। वर्तमान में मनाबी पश्चिम बंगाल के कृष्णा महिला कॉलेज में बतौर प्रिंसिपल कार्यरत है।

ट्रांसजेंडर होने के कारण कई बार मनाबी के सामने इतनी विकट चुनौतियां आई कि आत्महत्या तक की बात दिमाग में छाने लगती, मगर वह हिम्मत के साथ डटती, चुनौती का सामना करती और उसके बाद फिर एक नई चुनौती सामने खड़ी मिलती। 35 सालों तक यही चलता रहा। मंजिल का पता नही था, संघर्ष चरम पर था। लगभग 35 सालों के बाद अब मनाबी को पश्चिम बंगाल के कृष्णा महिला कॉलेज का प्रिंसिपल बनाया गया तो उन्हें लगा कि अब जाकर उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थान मिला। अपने संघर्ष की दास्तां शेयर कर रही है मनाबी-

शरीर पुरुष का था, इसमें मेरी क्या गलती
मेरा जन्म पश्चिम बंगाल के नैहाटी कस्बे में 25 सिंतबर 1964 को पुत्र के रुप में हुआ था, लेकिन जैसे-जैसे में 5-6 साल की हुई तो मुझे लड़कियों के कपड़े पहनना अच्छा लगने लगा। मेरा नाम भी सोमनाथ था। स्कूल में भी मैं लड़कियों के खेल खेलना पसंद करती थी। घर में मेरे अलावा दो बहनें ओर थी। मुझे बहनों के कपड़े पहनने का मन होता, मगर मां डांट देती, फिर भी मैं छिपकर उनके कपड़े पहन लेती, कपड़े पहनकर मेरी आत्मा तृप्त-सी हो जाती। मैं खुद को पूर्ण महसूस करती थी। मगर परिवार वालों को यह रास नही आता। कई बार पिताजी ने मेरी पिटाई भी की। मुझे हमेशा लगता कि मैं लड़का नही लड़की हूं और लड़का होने का बोझ ढ़ो रही हूँ। कई बार तो इतना परेशान हो जाती कि मन करता इन सबको छोड़कर कही दूर भाग जाऊं।

स्कूल में बच्चें बनाते थे मजाक
जब मैं स्कूल में पढ़ती थी तो कोई मुझसे दोस्ती नही करता था, किसी दिन यदि मैं स्कूल नही जाती तो कोई मुझे बीते दिन की पढ़ाई के बारे में नही बताता था। यही से मुझे एक सकारात्मक ऊर्जा भी मिली और मैंने आश्रित होना छोड़ दिया, दूसरे बच्चों से पूछना छोड़ दिया। यदि स्कूल नही भी जाती तो भी खुद ही पढ़ाई करती, इसका परिणाम यह हुआ कि मैं कक्षा में अव्वल आने लगी। ग्रेजुएशन में दाखिला लेने पर भी मेरा मजाक बनाया गया। एक बार तो मुझे मेरे सहपाठियो द्वारा कमरे में बंद तक कर दिया गया। अब तक भी मैं घुंट-घुंट कर जी रही थी क्योंकि पोशाक मुझे लड़कों की पहननी होती थी जोकि मुझे बिल्कुल भी पंसद नही था। मेरी व्यवहार शैली देखकर छात्र मेरा मजाक बनाते। लेकिन मुझमें तबतक सहनशक्ति विकसित हो चुकी थी और मैं हर तिरस्कार को अपना मुकद्दर समझकर भूल जाती। मैंने जाधवपुर विश्वविद्यालय से एमए में टॉप किया था। उसके बाद 2006 में थर्ड जेंडर पर पीएचडी की।

2003 में ऑपरेशन के बाद पूरी हुई मुराद
1995 में कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया था। तभी मैंने अपना सेक्स चेंज कराने की ठान ली थी क्योंकि जो अपमान मैं इतने समय से ढ़ो रही थी, मुझे लगता था कि सेक्स चेंज कराने के बाद मुझे इससे छुटकारा मिल जाएगा। इसी दौरान मैंने अकेलापन दूर करने के लिए ट्रांसजेंडरों के लिए पहली मैगजीन 'ओब-मानबनिकाली थी जिसका हिन्दी मतलब था- उप मानव। सेक्स चेंज कराने के लिए ऑपरेशन में 5-6 लाख रुपये लगते थे। जोकि मैंने 2003 तक इकट्ठे कर लिए और उसके बाद अपना ऑपरेशन कराया। ऑपरेशन के बाद लगा कि मेरा वजूद पूरा हो गया हैं। मगर सामाजिक तौर पर मुझे तब भी नही स्वीकारा गया। जेंडर चेंज करवाने के बाद उन्हेंन मारा-पीटा गयारेप तक करने की कोशिश की गई, उनके अपार्टमेंट को आग तक लगा दी गई, लेकिन मैंने हार नही मानी और अपना नाम सोमनाथ से मनाबी (मनाबी का अर्थ है मानवता) रख दिया।

ट्रांसजेंडरों को नही करने देते स्ट्रग्ल
स्ट्रग्ल तो सभी करते हैं, मगर ट्रांसजेंडरों को समाज में एक बड़ा तबका स्ट्रग्ल नही करने देता। मेरे साथ भी यही हुआ। मुझे आज तक समझ नही आया कि समाज में हम जैसे लोगों के प्रति इतना गुस्सा क्यों रहता है? हर जगह पक्षपात का शिकार होना पड़ता है। लेकिन मैंने हार नही मानी, स्ट्रग्ल किया और आज इस मुकाम पर पहुंची। पहले मैं झारग्राम कॉलेज में बतौर प्रोफेसर नौकरी करती थी। वहां मुझे हटाने के लिए अन्य शिक्षकों द्वारा खूब षडयंत्र रचे गए। मुझे वहां के स्टाफ क्वार्टर से निकाल दिया गया। तब मैंने किराये का कमरा लेकर बच्चों को पढ़ाया। लेकिन वहां भी मुझ पर हमले कराए गए। लेकिन मैंने हार नही मानी और उसके बाद विवेकानंद सतोवार्षिकी महाविद्यालय बतौर एसोसिएट प्रोफेसर ज्वाइन कर लिया। लेकिन यहां भी मुझे शिक्षिकों और शिक्षिकाओं के तिरस्कार का सामना अब तक करना पड़ता है। कई बार तो शिक्षिकों के व्यवहार से मैं इतना टूट जाती कि खाली समय में आंसू निकल पड़ते, मैंने उनसे पूछा भी मैं ऐसी हूं तो इसमें मेरी क्या गलती? मगर उनका व्यवहार आज तक भी मेरे प्रति कभी नरम नही हुआ। कॉलेज के स्टाफ में अभी तक भी कोई मुझसे ढंग से बात नही करता था। मेरे स्टूडेंट बहुत अच्छे, वो मुझे बहुत रेस्पेक्ट देते हैं। मैं ट्रांसजेंडर हूं, इसलिए मेरे साथ कॉलेज में एडमिनिस्ट्रेशन लेवल पर भी भेदभाव हुआ। मैंने 2006 में पीएचडी की, उसके बाद 2011 तक मुझे कोई इंक्रीमेंट नही दिया गया। लेकिन मैंने हार नही मानी।

शादी की मगर नही हुई सफल
मैने शादी की तो लगा कि अब सब कुछ ठीक हो रहा है मगर भगवान को कुछ ओर ही मंजूर था। मेरे पति ने शादी के कुछ दिनों बाद ही कहा कि मैं लड़की नही लड़का हूं और मैं तुम्हारे साथ नही रह सकता। इतना ही नहीं, मुझ पर मानहानि का दावा कर मेरे खिलाफ केस भी डाल दिया। 

अकेलापन दूर करने के लिए देवाशीष को किया एडाप्ट
अकेलापन इंसान को खा जाता है, घर भी सूना-सूना रहता था, 2011 में मैंने अपने एक स्टूडेंट देवाशीष को बेटे के रुप में एडाप्ट कर लिया। देवाशीष मुझे मां कहता है तो मेरी आत्मा को  बहुत सुकून मिलता है। देवाशीष के बाद मैंने कई ट्रांसजेंडरों को अपने घर में पनाह दी और उनकी मदद की। वर्तमान में मेरे घर में 4 ओर ट्रांसजेंडर रहते हैं।

खुद की मेहनत से पाया है प्रिंसिपल का पद
मैंने पिताजी शुतरन्जन बंदोपाध्याय 90 साल के हो चुके हैं। मां रेखा बंदोपाध्याय पहले ही गुजर चुकी है। पिता जी नैहाटी में रहते है और उन्हें मेरी जरूरत है। सालों बाद उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया है। नैहाटी कस्बे के पास के ही एक कॉलेज में प्रिंसिपल की वैकंसी निकली हुई थी। मैंने पिता के पास रहने की इच्छा से वहां अप्लाई किया। मैंने रिजर्वेशन नही लिया था, मैंने जनरल कैटेगरी में अप्लाई किया था। आज कुछ लोग कहते हैं कि मुझे ऐसी ही प्रिंसिपल के पद पर बैठा दिया गया है। लेकिन सच यह है कि प्रिंसिपल बनने के लिए एसोसिएट प्रोफेसर होना, 14 साल का एक्सपीरियंस और पीएचडी डिग्री होना अनिवार्य है। मेरे पास यह तीनों थी, इसलिए मैंने अप्लाई किया और यह पद पाया।

रविन्द्रनाथ टैगोर के जीवन से बहुत कुछ सीखा है
मैंने तो तन्हाई में जीना सीखा है। तिरस्कार का घूंट पल-पल पिया है। ट्रांसजेंडर को कोई मदद नही करता। मैंने रविन्द्रनाथ टैगोर के जीवन से बहुत कुछ सीखा है। विवेकानन्द और रामकृष्णन परमहंस को अपना गुरु मानती हूं। विवेकानन्द को खूब पढ़ती हूँ। संघर्ष के दिनों में इन महापुरुषों ने ही मुझे जीने की शक्ति दी है।

ट्रांसजेंडरों को करना चाहती हूं शिक्षित
ट्रांसजेंडर सामाजिक भेदभाव के कारण पढाई से दूर हो जाते हैं और पूरी जिंदगी नाचकर गाकर ही अपना गुजरा करते हैं। यदि ट्रांसजेंडरों को भी उचित सुविधा और संसाधन मुहैया कराए जाए तो ये भी दुनिया में नाम रोशन करने का दम रखते हैँ। मेरा मकसद ट्रांसजेडरों को शिक्षित करना है, अब इसी के लिए प्रयास करुंगी।

डॉ.समीर मल्होत्रा
वरिष्ठ मनोचिकित्सक, मैक्स अस्पताल
हर इंसान की सेक्सुएलिटी एक अहम पहलू है, जैसे समाज के अंदर पुरुष का रोल है, महिला का रोल है, ऐसे ही ट्रांसजेंडर जिस रोल को एडप्ट करना चाहता है, करता है, इससे उन्हें मानसिक सुख मिलता है। इसके लिए कई बार हॉर्मोनल, जेनेटिक कारण होते है तो कई बार इवायरमेंट कारण भी जिम्मेदार होते हैं। जैसा वातावरण और माहौल बचपन में मिलता है, जैसे घर के हालात होते है वैसे ही माहौल में रहकर ट्रांसजेंडर भी अपना माहौल खुद क्रिएट करता है। ऐसा करना गलत भी नही हैं, लेकिन ट्रांसजेंडर बनने के बाद उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार आगे बढ़ना चाहिए।

देवाशीष
एडाप्टिड चाइल्डमनाबी बंदोपाध्याय
मैं जब भी अपनी मां को मां कहकर पुकारता हो तो वह कहती है मुझे सुकून मिलता है। उन्हें देखकर मुझे भी अंदर ही अंदर एक अलग अनुभूति का एहसास होता है। लोग कहते हैं कि मम्मी ट्रांसजेंडर है, लेकिन मैं आपसे ही पूछता हूं अगर किसी बच्चें की मां मर जाती है तो तब पिता उसे मां की तरह पालता है और लोग कहते हैं कि यह इसकी मम्मी-पापा दोनों है। तो फिर क्यों एक ट्रांसजेंडर को ही अलग नजर से देखा जाता है, क्यों एक ट्रांसजेंडर मां नही हो सकतीमेरी मम्मी बेस्ट मम्मी है। मेरी मम्मी ने जो संघर्ष किया है वह मेरे लिए एक प्रेरणा है और मैं इस प्रेरणा से प्रेरित होकर अपनी मां का नाम दुनिया में रोशन करूंगा। अभी बंग्ला में एमए किया है, यहां तक मां ने ही मुझे गाइड किया। मम्मी हमेशा मुझे गाइड करती है।


मंगलवार, 13 सितंबर 2016

जानें मेडिकल टूरिज्म के तहत क्यों भारत आ रहे हैं विदेशी


यूरोप और अमेरिका, स्पेन, आस्ट्रेलिया आदि देशों में भारत के मुकाबले चिकित्सा मंहगी है। वही,पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान,अफगानिस्तान व खाड़ी देशों में जनसंख्या के सापेक्ष चिकित्सा संसाधनों का अभाव है। इसलिए विदेशों से बड़ी संख्या में लोग भारत ईलाज कराने आ रहे हैं। पिछले 4-5 सालों में मेडिकल टूरिज्म सेक्टर में भारी बूम आया है। सालाना मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसी के चलते अब इण्डिया में इस क्षेत्र में रोजगार की भी अपार सम्भावनाएं बढ़ गई है साथ ही सरकार इस उघोग को विकसित कर भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकता है। मेडिकल टूरिज्म पर प्रकाश डालती एक रिपोर्ट-

भारत के मेडिकल सेक्टर में महाशक्ति बनकर उभरने के संकेत स्पष्ट दिखाई देने लगे है। पिछले 5 वर्षों में विदेशियों की संख्या में लगातार हो रहा इजाफा इसकी पुष्टि करता है। यूं तो भारतीय चिकित्सकों ने चिकित्सा जगत में विश्व पटल पर पहले से ही अपनी धाक जमा रखी है। भारत आ रहे विदेशी मरीजों में ऐसे मुल्कों के मरीज है जिनमें चिकित्सा सेवाएं नही के बराबर है, वही कुछ ऐसे मुल्कों से भी ताल्लुक रखते है जहां चिकित्सा सुविधाएं अपेक्षाकृत बेहतर है और उनकी गिनती विकसित देशों में की जाती है। इन मरीजों के भारत आने के अलग-अलग कारण है। खाड़ी देशों के अतिरिक्त अफगानिस्तान,पाकिस्तान,बंग्लादेश आदि देशों से मरीज इसलिए भारत आते है ताकि उन्हें अच्छी चिकिस्ता सेवाएं उपलब्ध हो सकें। क्योंकि इन देशों में जनसंख्या के सापेक्ष चिकित्सा सुविधाएं नही के बराबर है। वही अमेरिका,आस्ट्रेलिया,स्पेन आदि देशों से मरीज इसलिए भारत पंहुच रहे है क्योंकि वहां चिकित्सा सेवाएं आम आदमी की पंहुच से बाहर है और इलाज कराने के लिए मरीज के एक बड़ी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसलिए इन सभी देशों के लोग भारत जैसे देशों की ओर रूख करने को मजबूर है। ईलाज कराने भारत आ रहे विदेशियों के लिए अब यहां बकायदा कंस्लटेंसी खुल चुकी है जो भारत में इनके रहने से लेकर ईलाज कराने तक का ठेका लेती है। इसकी एवज में मोटी धनराशि इन विदेशी मरीजों से ली जा रही है। मैक्स सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल में एचओडी मेडिसिन के पद पर कार्यरत डॉ.नरेश डैंग के अनुसार भारत में पिछले 4-5 सालों में मेडिकल टूरिज्म ने अपनी जडे जमाई है। विदेशों में ईलाज के लिए मरीजों को बहुत-सी औपचारिकताएं पूरी करनी होती है, तब जाकर कही ईलाज के लिए एप्वाइटमेंट मिलती है। इसके विपरीत भारत में विदेशों के मुकाबले ईलाज तो सस्ता है ही इसके अलावा यहां औपचारिकताएं नाममात्र है। जिसे विदेशी एक पल्स पाइंट के रूप में लेते है। अपोलो के डॉ.एस.त्यागी के अनुसार भारत में किडनी ट्रांसप्लांट,न्यूरोसाइंस, कॉस्मेटिक सर्जरी, हार्ट सर्जरी,कैंसर, आर्गेजन ट्रांसप्लांट के इलाज के लिए भारी संख्या में विदेशी आ रहे है। विदेशी मरीजों को इलाज कराने के लिए यहां 2-3 महीने तक रहना भी पड़ता है। आज के समय में  ईलाज कराने के लिए भारत विदेशियों की पहली पंसन्द बना हुआ है।

जाने मेडिकल टूरिज्म को
मेडिकल टूरिज्म का अर्थ है कि किसी दूसरे देश में जाकर ईलाज कराना। विदेशों में ईलाज बेहद मंहगा होने के साथ-साथ औपचारिकताएं भी अधिक है। वही भारत जैसे मुल्क में ईलाज विदेशों की अपेक्षा सस्ता और सुलभ है। इसी का लाभ उठाने के लिए विदेशी मरीज यहां आकर ईलाज कराना चाहते हैं। भारत में सालाना विदेशी मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में मेडिकल टूरिज्मके क्षेत्र में सालाना 30 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो रही है।

विदेशियों के भारत आने की वजह क्या है
इलाज के मामले में सबसे बुरी हालत अत्यधिक सम्पन्न और विकसित कहे जाने वाले देशों की है। इनमें यदि अमेरिका की बात करें तो, वहां यदि किसी व्यक्ति को तत्काल कोई सर्जरी  करानी हो तो वह संभव नही है। क्योंकि वहां के अस्पतालों में मरीजों को इतनी अधिक औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं कि उसे करते-करते मरीज की मौत भी हो सकती है। अमेरिका से भारत में कडनी ट्रांसप्लांट कराने आई विलियम्स विले से जब ये पूछा गया कि वह अमेरिका में रहते हुए भी भारत ईलाज कराने क्यों आए है तो उनका कहना था कि अमेरिका में इलाज कराना किसी बड़ी मुसीबत को गले लगाना है। वहां इलाज कराने की प्रक्रिया में ही मरीज लाचार और बेबस हो जाता है। उनके अनुसार अमेरिका में ईलाज कराने से पहले मरीज को अपना नाम उस अस्पताल में रजिस्टर कराना होता है जहां वह इलाज कराना चाहता है। 2-3 महीने के बाद मरीज को अपांइटमेन्ट दी जाती है, वह भी लगभग एक से डेढ़ महीने बाद की होती है। बकौल विलियम्स, भारत में इलाज के लिए मरीज को औपचारिकताएं नाममात्र को पूरी करनी होती है साथ ही यदि आपातकाल में मरीज को किसी चिकित्सक की सलाह की जरूरत हो तो वह भी हर समय उपलब्ध रहती है और यहां इलाज में लगने वाली रकम भी विदेशी देशों के मुकाबले अत्यधिक कम है। आफगानिस्तान से अपोलो दिल्ली में ईलाज कराने आए एक युवक के अनुसार उनके देश में चिकित्सा संसाधनों का अभाव है, वही भारत में चिकित्सा की अत्याधुनिक सुविधाएं उपलब्ध है। हांलाकि उनके देश के मुकाबले भारत का ईलाज मंहगा है मगर ओर देशों के मुकाबले भारत का ईलाज भी सस्ता है। इसलिए वह ईलाज कराने भारत ही आते है। स्पेन से इलाज कराने के लिए भारत आए जैक्सन ब्रैनले ने जनवाणी को बताया कि स्पेन में अस्पताल मरीज का ईलाज करने से पहले ये जांचते है कि क्या मरीज का मेडिकल बीमा है या नही । स्पेन में मेडिकल बीमा कराना भी आम आदमी की पंहुच में नही है,क्योंकि इसकी एवज में एक मोटी रकम अदा करनी होती है, जो आम आदमी की पंहुच से बाहर है। अगर मरीज का मेडिकल बीमा नही होता तो अस्पताल ईलाज करने में आनाकानी करते है, यही वजह है कि उन्हें भारत का मेडिकल सेक्टर बहुत भाया है। वह इससे पहले भी अपने पिता का ईलाज कराने भारत आ चुके है।

मेडिकल टूरिज्म का साइड इफेक्ट
विशेषज्ञों की मानें तो विदेशी मरीजों की बढ़ती संख्या भारतीय मरीजों के लिए पेरशानी का सबब बन सकती है। सरकार ने यदि समय रहते इस उघोग को विकसित नही किया तो भारतीय मरीजों को ही सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। प्रोफेसर डॉ.हरनेक सिंह गिल के अनुसार विदेशी यहां आकर ईलाज कराने की एवज में जो धनराशि देते है वह भारतीय मरीजों द्वारा दी गई धनराशि से ज्यादा होती है। ऐसे में प्राइवेट चिकित्सालय विदेशी मरीजों को ही वरीयता देगें। विदेशी मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सरकार को समय रहते इस उघोग को विकसित करने पर विचार करना चाहित ताकि विदेशी मुद्रा का भी अर्जन हो सके और आने वाले समय में भारतीयों को परेशानी का सामना ना करना पड़े।

सेरोगेसी भी है इसी का हिस्सा
सेरोगेसी जिसे किराए की कोख कहने में भी कोई श्योक्ति नही होनी चाहिए, भी मेडिकल टूरिज्म का ही एक हिस्सा है। विदेशों से बड़ी संख्या में दंम्पत्ति भारत आकर किराए की कोख खरीद रहे हैं। सेरोगेसी से प्राप्त बच्चे के लिए विदेशी दंपत्ति 40-50 लाख रूपये देते है। भारत में यूपी और बिहार की महिलाएं इस धन्धें में सबसे ज्यादा लिप्त है। विदेशी दम्पत्तियों के लिए ऐसी महिलाओं को ढूढने का काम कंस्लटेंसी करती है। इन दम्पत्तियों से तो ये कंस्लटेसी मोटी रकम लेती है मगर सेरोगेट मदर को ये मात्र दो-तीन लाख रूपये ही देते है। इसकी पुष्टी हाल ही में दिल्ली की एक एनजीओ सेंटर फॉर सोशल रिसर्च द्वारा कराये गये ताजा अध्ययन में हुई है।

विदेशों के मुकाबले कितना सस्ता है इलाज
ऑपरेशन-                 विदेश-                   भारत

लीवर ट्रांसप्लांट-            3-4लाख-                 60 हजार

आर्थोपैडिक सर्जरी-          20-30 हजार-             7-8 हजार

हार्ट सर्जरी-               35-40 हजार-             7-9 हजार

कॉस्मेटिक सर्जरी-          25-30 हजार-             2-3 हजार

बोन मैरो ट्रांसप्लांट-         2-3 लाख-                30-35 हजार

(यह खर्चा अमेरिकी डॉलर में है और यह आंकलन अपोलो के चिकित्सकों का अनुमानित है, इसके अलावा मरीज के रहने और कंस्लटेंसी का खर्च अलग है)

हर साल भारत में बढ़ रही है विदेशी पर्यटकों की संख्या
पर्यटन मंत्रालय के आकड़ों पर गौर करे तो भारत के राज्‍यों और संघ-शासित राज्‍यों में 2011 की तुलना में वर्ष 2012 के दौरान विदेशीपर्यटकों की यात्राओं की संख्‍या में 6.33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, जबकि2010 की तुलना में 2011 में 8.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। राज्‍यों और संघ-शासित राज्‍यों में विदेशी पर्यटक यात्राओं की संख्‍या 2012 के दौरान20.7 मिलियन रही, जबकि 2011 में यह संख्‍या 19.5 मिलियन और2010 में 17.9 मिलियन रही थी। गत माह जून 2013 में विदेशी पर्यटकों के आगमन में भी 2.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। जून 2012  के4.33 लाख की तुलना में जून 2013  में 4.44 लाख विदेशी पर्यटक भारत आए। जनवरी से जून 2013  के बीच 33.08  लाख पर्यटक आए,जबकि पिछले साल जनवरी से जून के बीच 32.24 लाख पर्यटक आए थे। इस तरह इस साल जनवरी से जून के बीच भारत आने वाले पर्यटकों की संख्‍या में 2.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
विदेशी मुद्रा में भी हो रहा इजाफा
पर्यटन मंत्रालयों के आकड़ों के अनुसार पिछले साल की सापेक्ष जून2013  में विदेशी पर्यटन से कमाई बढ़कर 551 करोड़ रुपये हो गई। जून2013  में विदेशी पर्यटकों से 7,036 करोड़ रुपये की कमाई हुई, जबकि यह कमाई 2012  के जून में 6,485 करोड़ रुपये थी। वही जून 2011 में विदेशी पर्यटकों से 5,440 करोड़ रुपये का अर्जन हुआ था।